“जो तुम सुनहु जसोदा गोरी | नंदनंदन मेरे मंदीर में आजू करन गए चोरी || हों भइ जाइ अचानक ठाढ़ी कह्यो भवन में कोरी | रहे छपाइ सकुचि रंचक ह्वै भई सहज मति भोरी || मोहि भयो माखन पछितावो रीती देखि कमोरी | जब गहि बांह कुलाहल किनी तब गहि चरन निहोरी || लागे लें नैन जल भरि भरि तब मैं कानि न तोरी | सूरदास प्रभु देत दिनहिं दिन ऐसियै लरिक सलोरी ||”